भारतीय समुद्री क्षेत्र में कटिबंधीय चक्रवाती तूफान एवं जलवायु परिवर्तन पर विश्व मौसम विज्ञान संबंधी संगठन-डब्ल्युएमओ का दूसरा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन शुरू हो रहा है। तीन दिनों तक चलने वाले इस सम्मेलन का आयोजन विश्व मौसम संगठन के सहयोग से भारतीय मौसम विभाग, भू-विज्ञान मंत्रालय कर रहा है, जिसका उद्देश्य चक्रवाती तूफानों के आने के वैज्ञानिक आधार और इसके बुरे प्रभावों से बचने में आ रही अड़चनों से निपटने के उपायों पर चर्चा करना है। भारतीय चक्रवाती तूफान एवं जलवायु परिवर्तन पर पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन मस्कट, ओमान में 8-11 मार्च 2009 को हुआ था।
कटिबंधीय चक्रवाती तूफान एक विध्वंसक प्राकृतिक आपदा है, जिसकी वजह से पिछले 50 वर्षों में विश्वभर में पांच लाख से अधिक लोगों की मौत हो गई। पिछले 300 वर्षों के दौरान विश्वभर में आए चक्रवाती तूफानों में से 75 फीसदी से अधिक तूफानों में 5000 या इससे अधिक लोगों की मौत उत्तर भारतीय समुद्री इलाकों में हुई। इस क्षेत्र में चक्रवाती तूफानों से इतनी बड़ी जनहानि यहां की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के अलावा भौगोलिक स्थितियों, आंकलन की बाध्यता, पूर्वानुमान व्यवस्था, पूर्व चेतावनी व्यवस्था और आपदा प्रबंधन प्रक्रियाओं में कमी की वजह से हुई।
चक्रवाती तूफानों के उत्पन्न होने की स्थिति उसकी तीव्रता एवं गति और भारी बारिश, आंधी, समुद्री लहर और तटीय सैलाब जैसी इससे जुड़ी विकट प्राकृतिक स्थितियों को समझना भी वैश्विक जलवायु परिवर्तन की स्थिति में काफी महत्वपूर्ण रहा है। धरती के बढ़ते तापमान के रुख के संदर्भ में चक्रवाती तूफानों के ऊपरी गुणों की जांच करना काफी रूचिकर होगा। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल-आईपीसीसी की नवीनतम रिपोर्ट में जलवायु में गर्माहट के साथ विभिन्न समुद्री इलाकों में चक्रवाती तूफानों की तीव्रता में बढ़ोत्तरी का आंकलन किया गया है। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी सहित भारतीय समुद्री क्षेत्र के तटीय इलाके उच्च जनसंख्या घनत्व की वजह से सुरक्षा के लिहाज से बेहद ध्यान देने योग्य हैं।
इस सम्मेलन का उद्देश्य भारतीय समुद्री इलाकों से सटे देशों में चक्रवाती तूफानों पर जलवायु परिवर्तन के विज्ञान संबंधी प्रभाव के अध्ययन को बढ़ावा देना है। सम्मेलन में पेश होने वाले दस्तावेजों से भारतीय समुद्री क्षेत्र में पूर्वानुमान और चेतावनी व्यवस्था के संचालन, भारतीय समुद्री चक्रवाती तूफानों के सामाजिक प्रभाव, आपदा से निपटने की तैयारी का आंकलन और चक्रवाती तूफानों की रोक और उसकी गति में कमी जैसे उपाय करने में मदद मिलेगी। सम्मेलन में इस तरह के मुद्दों पर बड़ी संख्या में कार्यशालाएं और विशेषज्ञों की चर्चा भी होगी। जलवायु परिवर्तन पर भारतीय समुद्री चक्रवाती क्षेत्रों से जुड़े देशों से प्रसिद्ध वैज्ञानिकों और अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान समुदायों से जुड़े लोग दस्तावेज पेश करेंगे। उम्मीद की जाती है कि सम्मेलन में सभी बड़े मुद्दों को सुलझाने के लिए एक आंकलन वक्तव्य जारी होगा। ऐसा अनुमान है कि सम्मेलन से निकले नतीजों और सिफारिशों को 2014 में जारी होने वाली आईपीसीसी की पांचवीं आकलन रिपोर्ट-एआर5 को दिया जाएगा। इस सम्मेलन की सभी बातों को डब्ल्युएमओ सम्मेलन प्रक्रियाएं के तहत प्रकाशित किया जाएगा।
सम्मेलन में अनुसंधान और मौसम विज्ञान संबंधी पर्यावरण कार्य क्षेत्र से जलवायु परिवर्तन और चक्रवाती तूफानों के जानकार एक साथ जुटेंगे, जो चक्रवाती तूफानों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर डब्ल्युएमओ विशेषज्ञ दल के आंकलन सहित नवीन अनुसंधानों पर विचार-विमर्श करेंगे। डब्ल्युएमओ विशेषज्ञ दल का यह आंकलन नेचर जिओ साइंस पत्रिका के मार्च 2010 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस सम्मेलन का मुख्य बिंदु भारतीय समुद्री इलाकों में चक्रवाती तूफानों और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध पर चर्चा कराना है। इसके साथ ही सम्मेलन में चक्रवाती तूफान से अर्थव्यवस्था, आधारभूत संरचना और समाज पर पड़ने वाले असर पर भी चर्चा होगी।
Tuesday, February 14, 2012
भूकंप
एक भूकंप पृथ्वी की परत से ऊर्जा के अचानक उत्पादन के परिणामस्वरूप आता है जो भूकंपी तरंगें उत्पन्न करता है.भूकंप का रिकार्ड एक सीस्मोमीटर के साथ रखा जाता है, जो सीस्मोग्राफ भी कहलाता है. एक भूकंप का क्षण परिमाण पारंपरिक रूप से मापा जाता है, या सम्बंधित और अप्रचलित रिक्टर परिमाण लिया जाता है, ३ या कम परिमाण की रिक्टर तीव्रता का भूकंप अक्सर इम्परसेप्टीबल होता है और ७ रिक्टर की तीव्रता का भूकंप बड़े क्षेत्रों में गंभीर क्षति होता है. झटकों की तीव्रता का मापन विकसित मरकैली पैमाने पर किया जाता है.
पृथ्वी की अंदरूनी सतह विशालकाय चट्टानों की प्लेट से बनी हुई है। इनमें हमेशा हलचल होती रहती है। जब कभी ये प्लेटें आपस में टकराती हैं तो कंपन पैदा होता है और लोगों को भूकंप का अहसास होता है। प्लेटों के दरकने का कारण बरसात के मौसम में नदियों में पानी भरना भी हो सकता है, क्योंकि कमजोर प्लेटें ज्यादा पानी का दबाव सहन नहीं कर पातीं। पृथ्वी के अंदर ऊर्जा निर्मुक्त होने से भी प्लेटों में हलचल होती है और भूचाल आ जाता है। सिक्किम में हाल ही में आया भूकंप यूरेशिया यानी यूरोप और एशिया की चट्टानों की प्लेटों की आपसी टकराहट का नतीजा माना जा रहा है। इस भूकंप की गहराई 20 किलोमीटर नीचे थी। इसलिए इससे ज्यादा नुकसान पहुंचा। भूंकप की संवेदनशीलता के मद्देनजर देश के भू-भागों को जोन एक से लेकर पांच तक बांटा गया है। इनमें जोन पांच भूकंप के लिहाज से काफी संवेदनशील माना जाता है। भूकंप की तीव्रता मापने के लिए फिलहाल रिक्टर और मारकेली स्केल का इस्तेमाल किया जाता है। रिक्टर स्केल पर पृथ्वी में कंपन के आधार पर भूकंप की तीव्रता मापी जाती है, वहीं मारकेली स्केल पर भूकंप से हुई क्षति के आधार पर तीव्रता का आकलन किया जाता है। 1935 में चार्ल्स रिक्टर ने भूकंप की तीव्रता मापने का स्केल तैयार किया था। वैसे भूकंप की जानकारी हासिल करने के लिए चीन में सबसे पहले सिस्मोस्कोप का आविष्कार किया गया। चीनी दार्शनिक चेंग हेंग ने ईसा पूर्व 132 में इस यंत्र का ईजाद किया था। रिक्टर पैमाने के विकास के बाद 22 मई, 1960 को दुनिया का सर्वाधिक विनाशकारी जलजला चिली में आया था। तब इसकी तीव्रता 9.5 मापी गई थी। यूं तो दुनिया में रिक्टर पैमाने पर तीन तक की तीव्रता वाले भूकंप लगभग रोजाना ही दर्ज किए जाते हैं, पर छह से ऊपर की तीव्रता वाले भूकंप क्षेत्र विशेष के लिए विनाशकारी साबित होते हैं। सिस्मोग्राफ के आंतरिक हिस्से में सिस्मोमीटर लगा होता है, जो पेंडुलम की तरह होता है। सिस्मोग्राफ वह यंत्र है, जिसके जरिए भूकंप के दौरान कंपन को मापा जाता है। इस यंत्र का विकास 1890 में किया गया था। अब दुनिया में कहीं भी भूकंप आए, इसकी पूरी जानकारी तुरंत सिस्मोग्राफिक नेटवर्क के जरिए मिल जाती है, चाहे अभिकेंद्र यानी एपिसेंटर की जानकारी हो या तीव्रता या उसकी गहराई की। खास बात यह है कि भूकंप का अभिकेंद्र सतह से जितना नीचे होगा, भूकंप उतना ही कम खतरनाक होगा।
वैज्ञानिकों ने धरती की सतह के काफ़ी भीतर आने वाले भूंकपों की ही तरह नकली भूकंप प्रयोगशाला में पैदा करने में सफलता पाई है.ऐसे भूकंप आमतौर पर धरती की सतह से सैंकड़ों किलोमीटर अंदर होते हैं, और वैज्ञानिकों की तो यह राय है कि ऐसे भूकंप वास्तव में होते नहीं हैं.वैज्ञानिकों ने इन कथित भूकंपों को प्रयोगशाला में इसलिए पैदा किया कि इसके ज़रिए धरती की अबूझ पहेलियों को समझा जा सके.ताज़ा प्रयोगों से धरती पर आए भीषणतम भूकंपो में से कुछ के बारे में विस्तृत जानकारी मिल सकेगी.अधिकांश भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किलोमीटर अंदर होती है.
सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने और कम दबाव के कारण भंगुर होती है. ऐसी स्थिति में जब अचानक चट्टानें गिरती हैं तो भूकंप आता है.एक अन्य प्रकार के भूकंप सतह से 100 से 650 किलोमीटर नीचे होते हैं.इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि सिद्धांतत: चट्टानें द्रव रूप में होनी चाहिए, यानि किसी झटके या टक्कर की कोई संभावना नहीं होनी चाहिए.लेकिन ये चट्टानें भारी दबाव के माहौल में होती हैं.इसलिए यदि इतनी गहराई में भूकंप आए तो निश्चय ही भारी ऊर्जा बाहर निकलेगी।
धरती की सतह से काफ़ी गहराई में उत्पन्न अब तक का सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलीविया में रिकॉर्ड किया गया. सतह से 600 किलोमीटर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी.हालाँकि वैज्ञानिक समुदाय का अब भी मानना है कि इतनी गहराई में भूकंप नहीं आने चाहिए क्योंकि चट्टान द्रव रूप में होते हैं.वैज्ञानिकों का मानना है कि विभिन्न रासायनिकों क्रियाओं के कारण ये भूकंप आते होंगे.अत्यंत गहराई में आने वाले भूकंपों के बारे में ताज़ा अध्ययन यूनवर्सिटी कॉलेज, लंदन के मिनरल आइस एंड रॉक फिज़िक्स लैबोरेटरी में किया गया है.
पृथ्वी की अंदरूनी सतह विशालकाय चट्टानों की प्लेट से बनी हुई है। इनमें हमेशा हलचल होती रहती है। जब कभी ये प्लेटें आपस में टकराती हैं तो कंपन पैदा होता है और लोगों को भूकंप का अहसास होता है। प्लेटों के दरकने का कारण बरसात के मौसम में नदियों में पानी भरना भी हो सकता है, क्योंकि कमजोर प्लेटें ज्यादा पानी का दबाव सहन नहीं कर पातीं। पृथ्वी के अंदर ऊर्जा निर्मुक्त होने से भी प्लेटों में हलचल होती है और भूचाल आ जाता है। सिक्किम में हाल ही में आया भूकंप यूरेशिया यानी यूरोप और एशिया की चट्टानों की प्लेटों की आपसी टकराहट का नतीजा माना जा रहा है। इस भूकंप की गहराई 20 किलोमीटर नीचे थी। इसलिए इससे ज्यादा नुकसान पहुंचा। भूंकप की संवेदनशीलता के मद्देनजर देश के भू-भागों को जोन एक से लेकर पांच तक बांटा गया है। इनमें जोन पांच भूकंप के लिहाज से काफी संवेदनशील माना जाता है। भूकंप की तीव्रता मापने के लिए फिलहाल रिक्टर और मारकेली स्केल का इस्तेमाल किया जाता है। रिक्टर स्केल पर पृथ्वी में कंपन के आधार पर भूकंप की तीव्रता मापी जाती है, वहीं मारकेली स्केल पर भूकंप से हुई क्षति के आधार पर तीव्रता का आकलन किया जाता है। 1935 में चार्ल्स रिक्टर ने भूकंप की तीव्रता मापने का स्केल तैयार किया था। वैसे भूकंप की जानकारी हासिल करने के लिए चीन में सबसे पहले सिस्मोस्कोप का आविष्कार किया गया। चीनी दार्शनिक चेंग हेंग ने ईसा पूर्व 132 में इस यंत्र का ईजाद किया था। रिक्टर पैमाने के विकास के बाद 22 मई, 1960 को दुनिया का सर्वाधिक विनाशकारी जलजला चिली में आया था। तब इसकी तीव्रता 9.5 मापी गई थी। यूं तो दुनिया में रिक्टर पैमाने पर तीन तक की तीव्रता वाले भूकंप लगभग रोजाना ही दर्ज किए जाते हैं, पर छह से ऊपर की तीव्रता वाले भूकंप क्षेत्र विशेष के लिए विनाशकारी साबित होते हैं। सिस्मोग्राफ के आंतरिक हिस्से में सिस्मोमीटर लगा होता है, जो पेंडुलम की तरह होता है। सिस्मोग्राफ वह यंत्र है, जिसके जरिए भूकंप के दौरान कंपन को मापा जाता है। इस यंत्र का विकास 1890 में किया गया था। अब दुनिया में कहीं भी भूकंप आए, इसकी पूरी जानकारी तुरंत सिस्मोग्राफिक नेटवर्क के जरिए मिल जाती है, चाहे अभिकेंद्र यानी एपिसेंटर की जानकारी हो या तीव्रता या उसकी गहराई की। खास बात यह है कि भूकंप का अभिकेंद्र सतह से जितना नीचे होगा, भूकंप उतना ही कम खतरनाक होगा।
वैज्ञानिकों ने धरती की सतह के काफ़ी भीतर आने वाले भूंकपों की ही तरह नकली भूकंप प्रयोगशाला में पैदा करने में सफलता पाई है.ऐसे भूकंप आमतौर पर धरती की सतह से सैंकड़ों किलोमीटर अंदर होते हैं, और वैज्ञानिकों की तो यह राय है कि ऐसे भूकंप वास्तव में होते नहीं हैं.वैज्ञानिकों ने इन कथित भूकंपों को प्रयोगशाला में इसलिए पैदा किया कि इसके ज़रिए धरती की अबूझ पहेलियों को समझा जा सके.ताज़ा प्रयोगों से धरती पर आए भीषणतम भूकंपो में से कुछ के बारे में विस्तृत जानकारी मिल सकेगी.अधिकांश भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किलोमीटर अंदर होती है.
सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने और कम दबाव के कारण भंगुर होती है. ऐसी स्थिति में जब अचानक चट्टानें गिरती हैं तो भूकंप आता है.एक अन्य प्रकार के भूकंप सतह से 100 से 650 किलोमीटर नीचे होते हैं.इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि सिद्धांतत: चट्टानें द्रव रूप में होनी चाहिए, यानि किसी झटके या टक्कर की कोई संभावना नहीं होनी चाहिए.लेकिन ये चट्टानें भारी दबाव के माहौल में होती हैं.इसलिए यदि इतनी गहराई में भूकंप आए तो निश्चय ही भारी ऊर्जा बाहर निकलेगी।
धरती की सतह से काफ़ी गहराई में उत्पन्न अब तक का सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलीविया में रिकॉर्ड किया गया. सतह से 600 किलोमीटर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी.हालाँकि वैज्ञानिक समुदाय का अब भी मानना है कि इतनी गहराई में भूकंप नहीं आने चाहिए क्योंकि चट्टान द्रव रूप में होते हैं.वैज्ञानिकों का मानना है कि विभिन्न रासायनिकों क्रियाओं के कारण ये भूकंप आते होंगे.अत्यंत गहराई में आने वाले भूकंपों के बारे में ताज़ा अध्ययन यूनवर्सिटी कॉलेज, लंदन के मिनरल आइस एंड रॉक फिज़िक्स लैबोरेटरी में किया गया है.
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